Saturday, August 2, 2014

शब्दचित्र - 5. अपना अपना नसीब

©संध्या पेडणेकर 
सोनूताई.
'ताई' इसलिए क्योंकि वह मुझसे बड़ी थीं।
मैं फ्रॉक पहनकर गली भर में हुडदंग मचाती फिरती थी और वह साडी लपेट कर घर में ही बैठी रहती थी
मैं शायद -दस साल की थी तब। वह शायद बीस-बाईस की रही होगी, या उससे कम।
हमारा घर टेढी और सीधी गली के मुहांने पर था। टेढ़ी गली छोटी थी - यही कोई बीस-बाईस घर थे उसमें -दोनों तरफ - कुल मिला कर। सीधी गली लंबी-चौडी थी, सड़क की तरह। टेढ़ी गली में सोनूताई के ही सब नाते-रिश्तेदार रहते थे। किसी जमाने में एक ही परिवार रहा होगा अब सब अलग अलग बसे थे। सबके की एक एक दीवार दूसरे के घर के साथ साझा थी। टेढी गली के सिरे पर जो घर था उसमें एक मुसलमान परिवार रहता था। उस घर के बाद टेढ़ी गली खत्म होती थी। परली तरफ पूरी गली का देवघरयानी पूजा घर था। देवघ की चौडाई तीन गलियों की चौड़ाई जितनी थी और उसमें एक कुआं था जिसमें बारहों महीने इतना पानी रहता था मानो वह कुआं नहीं भरा हुआ हौज हो।
टेढ़ी गली के सिरे पर जो मुसलमान परिवार का घर था वह बाहर से भले एक दिखाई दे, अंदर उसमें दस चूल्हे अलग अलग जलते थे। उड़ते उड़ते सुना था कि सोनूताई के किसी पूर्वज ने एक मुसलमान औरत रखी थी। यह उसी के वंशज थे, सब अपना चूल्हा अलग जलाते थे। माली हा के चलते चूल्हे अलग होने के बावजूद वे परिवार अलग घर लेकर नहीं रह पाए थे। उसी घर में रह कर सब अपनी रोटी अलग पका कर खाते थे। मैं एक बार उस घर गई थी। उनमें से एक परिवार की पाली बिल्ली के जने पिल्ले देखने। उस घर में इतने बच्चे थे कि सहसा मेरे मन में आया कि यहां लोग अपने बच्चों को कैसे पहचानते होंगे?
टेढ़ी गली के इन सभी परिवारों को एक ही चिंता सताती थी - सोनूताई की शादी की चिंता।
मुझे सोनूताई अच्छी लगती थी - सांवली, सलोनी, लंबे बाल, बड़ी बड़ी आंखें और बातूनी। हां, बातें वह सिर्फ मेरे साथ करती थी या फिर मेरी सहेलियों के साथ। घर में या रिश्तेदारों के सामने वह हमेशा चुप ही रहा करती थी। उनकी नज़रों में सोनूताई नाटी थी, काली थी, मोटी थी और थी अनपढ़। इसलिए उसकी शादी को लेकर सब बड़े लोग चिंतित थे।
मैं सोनूताई से मिलने हमेशा उनके घर जाया करती थी। खास कर स्कूल से लौटने के बाद। उनके घर की एक बात मुझे बहुत पसंद थी - घर एकदम साफ-सुथरा और चकाचक हुआ करता था। काफी बड़ा था लेकिन हमारे शहर के अन्य घरों की तरह ही एक से लगे एक कमरे थे जैसे रेल के डिब्बे। हमारे शहर का मक्खन जितना मशहूर था, उतने ही रेल की बोगियों जैसे घर भी मशहूर थे। इन घरों में हवा या रोशनी या तो अगले कमरे में आती या एकदम पिछले कमरे में। एकमंजिला घर हो तो छत की खपरैलों में कांच बिठा कर रोशनी की व्यवस्था की जाती थी लेकिन मकान अगर दो-तीन मंजिला हुआ तो फिर नीचे के बाकी सभी कमरों में घुप्प अंधेरा हुआ करता था। रसोई घर में भी।
सोनूताई के रसोई घर में कभी ढिबरी जलती थी तो कभी चूल्हे में जलती लकडियों की रोशनी से काम चलाया जाता था। मैं करीब शाम छह-साढ़े छह बजे के आसपास उनके घर जाया करती थी। तब चूल्हे से लपालप लपटें निकलती रहती थीं। उन लपटों के सिर पर तवा चढ़ा रहता था। चूल्हे के पेट से निकली बारीक, गोल, लंबी लकडियां बाहर तक आतीं। खरगोश के कान की तरह चूल्हे के पीछे दो सिर उठे रहते। उनसे भी चूल्हे की लपटें निकलती रहती थीं। उनमें से एक पर दाल गलती रहती थी और एक पर चावल। सोनूताई ने ही मुझे सिखाया था कि दाल धोकर पानी फेंकना होता है लेकिन चावल धुले पानी में ही दाल जल्दी गलती है। पास के मटके से पानी लेकर वह मेरे सामने ही एक बड़ी परांत में अनाज धुला पानी डालते हुए मुझसे बातें किया करती थी। दाल-चावल चढ़ाने के बाद वह सब्जी को परांत वाले पानी में भिग कर रखती। आज भी मुझे याद है कि उनके घर हमेशा पत्ता सब्जी ही बनती थी।
फिर काठवट यानी लकडी की, परांत के ही आकार की बड़ी थाली निकाल कर उसमें ज्वार का आटा लेती। चूल्हे पर रखे तवे में गिलास भर पानी डालती गरम तवा और पानी एक-दूसरे से छूते तो चिल्ला उठते। फिर वह ज्वा के आटे में गोल गड्ढा-सा बना लेती उसमें तवे का उबलता हुआ पानी डालती फटाफट कलछी चला कर पूरे आटे को गरम पानी में भिगोती फिर उसे दबा कर एक छोटा पहाड बना कर एक तरफ लगा कर रख देती। यह सब बेहद तेजी से होता। सोनूताई का हाथ यह सब करते हुए कभी जला नहीं था। फिर उस पहाड के छोटे छोटे हिस्से तोड़ कर  ऊपर से पानी के छींटे देकर वह अच्छी तरह से गूंधती। ज्वार के आटे में लोच लाना कितना मुश्कि होता है यह मैंने बाद में, खुद ज्वार की रोटी बनाते वक्त जाना। फि कावट में ही हाथ से पीट पीट कर वह रोटी बनाती और चूल्हे पर तप रहे तवे में रोटी डालती। सोनूताई की बनाई रोटी पूरे तवे को घेरती। बिल्कुल किनारे तक। सोनूताई के अलावा मैंने कभी किसीको इतनी बडी और बेहद पतली, नरम रोटी बनाते हुए  नहीं देखा। तवे में एकाध पल सीझने के बाद वह रोटी के पेट पर पानी का हाथ फेरती। आटे पर पानी लगते ही भाप निकलती, मेरी सांस थम-सी जाती लेकिन सोनूताई का हाथ कभी तवे की रोटी में पानी का हाथ फेरते हुए जलता नहीं था फिर वह कलछी चला कर रोटी को तवे से धीरे धीरे अलग कर पलट देती। और इत्मीनान से दूसरी रोटी के लिए आटा लेकर, पानी के छींटे देकर रगड रगड कर लोई बनाती और थपक कर रोटी बना देती। पूरे समय तक तवे में रोटी बनती रहती थी। फिर रोटी को तवे से हटा कर वह अंगारों पर डाल देती। रोटी बनाते हुए उसके कुल हावभाव मुझे इतने आकर्षक लगते थे कि मैं बस देखती रहती। रोटी सेंकने का री हिस्सा देखते हुए हर फूलती रोटी के साथ मेरे  रोंगटे खड़े होते। तवे से उतारी रोटी सोनूताई अंगारों पर जब रखती तब वह देते देखते फूल जाती। फूली रोटी को झाड-झटक कर बेंत की, कपडा लगी  टोकरी में वह डालती जाती। नर्म, मुलायम, सफेद रोटी। कभी वह बेसन बनाती तो थोड़ा रोटी के ऊपर रख कर मुझे चखने देती। वह स्वाद, आहा!!
सोनूताई के घर में कुल पांच सदस्य थे - मां, दो भाई और एक बहन। सभी भाई-बहन सोनूताई से बड़े थे। उनकी बडी बहन की शादी हो चुकी थी। लेकिन उन दिनों वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मायके में ही रह रही थीं। वह या तो ऊपर अपने कमरे में बैठी रहतीं या गली की औरतों के साथ अदब से बतियाती रहती। सोनूताई की मां को मैंने बहुत कम बार देखा था। सोनूताई ने मुझे बताया था कि वह खेती का सारा काम सम्हालती है उन्हें देख कर लगा था कि वह पढ़े-लिखे, संभ्रांत परिवार की महिलाओं जैसी हैं।
घर के सभी लोगों के लिए सोनूताई ही खाना बनाती थी। सुबह-शाम। घर का बाकी सभी काम भी वही किया करती थी। मसलन- बर्तन मलना, कपडे धोना, हफ्ते में एक बार पूरे घर की जमीन को गोबर से पाथना, हररोज झाडू लगाना, कहीं किसी चीज पर धूल जमने देना आदि। वह बाहर कहीं नहीं जाती थी। या फिर उन्हें जाने नहीं दिया जाता था मुझे पता नहीं। सिर्फ एक बार रात के दस बजे वह हमारे घर आई थी। मेरे लिए कुकुरमुत्ते की सब्जी लेकर। मैं तब सोई थी। मां ने बाद में बताया था कि आप कौन हैं? पूछने पर सोनूताई ने अपने को मेरी दोस्त बताया था। अगले दिन कुकुरमुत्ते की सब्जी मैं रोटी के साथ स्वाद ले ले कर खा रही थी और मां बडबडाती रही थी - लड़की के लच्छनों का तो भगवान जाने। अब अधे औरतें इसकी दोस्त बनने लगीं।
मुझे याद है, एक बार और सोनूताई के कारण मुझे जबरदस्त डांट खानी पड़ी थी। मां और पिताजी दोनों से। मैं
उनसे मुर्गी के दो बच्चे ले आई थी। चूजे नहीं - बच्चे। आकार से लगभग मुर्गियां बनी थी वे शाम के वक्त हम उनके पीछे वाले आंगन में तुलसी वृंदावन के साथ बने चौथरे पर बैठ कर मुर्गियों को दाना खिलाया करती थीं। फिर मुर्गियों को पकड पकड कर टोकरियों के नीचे ढंक दिया करते थे हम कभी कोई मुर्गी भाग जाती थी तो हम दोनों उसे घेर कर पकड लाते। काफी मशक्कत करनी पड़ती थी लेकिन बड़ा मजा आता था। मुर्गी एक बार मन बना ले कि अभी सोना नहीं है तो वह आसानी से हाथ नहीं आती। कभी कभी पकडनेवाले को चोंच मार कर जख्मी भी कर देती है। उनका अपना दिमाग होता है और अपनी तरंग होती है।
कई बार सुबह सोनूताई के आंगन में बिछे शहतूत मैंने खाए। ऐसे ही कभी मैंने कहा होगा कि मुझे भी मुर्गियां पालनी हैं और झट दूसरे दिन सोनूताई मुर्गी के दो बच्चे थमा गई मां ने साफ मना कर दिया था। यह कह कर कि चार बच्चे और बिल्लियों का करना पड़ता है अब आप ये मुर्गियां मत देना ।लेकिन सोनूताई अडी रही। उसकी दलील थी कि अगर मैं मना करूं तो वह उन्हें वापिस ले जाएगी।
उस दिन मैं स्कूल से लौटी तो घर का एक कमरा बंद था और मां सिर पकड़ कर बैठी थी कमरा खोल कर देखा तो मैं भी चमक गई। पूरे कमरे भर में मुर्गियों ने टट्टी कर रखी थी। दरवाजा खुला और वे भागने लगीं। जिस किसी तरह  दबोच कर मैंने उन्हें अंदर किया और चटखनी चढ़ा दी। सोनूताई से जाकर मैंने कहा कि ले जाओ तो उन्होंने मुझे करीब तीन फूट ऊंची, खिडकी वाली टोकरी दे दी और कहा, इसके नीचे उन्हें रखो, सब ठीक हो जाएगा।
रात में पता नहीं कैसे क्या हुआ, हमारी बिल्ली और उन मुर्गियों के चीखने की आवाजों से गली जाग गई। सोनूताई खु आईं और मुर्गियां ले गई फिर लंबे समय तक मां और पिताजी दोनों मुझे डांटते रहे कि इसतरह लोगों से कुछ भी मांगते ना फिरो। और कि, प्राणी इसके बाद घर नहीं लाओ आदि। बाद में पता चला था कि कोई कुत्ता घर में पहले से घुसा था जिसने रात में शायद मुर्गियों को पकड़ने की कोशिश की थी।
लेकिन दूसरे दिन मां ने सोनूताई की मां से शिकायत की थी। सोनूताई की मां ने हल्के से लिया था। कहा था कि, मुर्गी के बीस-पच्चीस चूजे निकलते हैं। दे दिए होंगे दो दोस्ती में उठा कर उसे। अब वापिस कर दिए ना आपने, जाने दो।
बाद में मैं और सोनूताई इस बात पर खूब हंसे थे।
खाना पकाने, मुर्गियों को ढंकने, दिए बालने आदि सभी काम निपटाने के बाद सोनूताई मुझे कहानियां सुनाती मैं शायद उसी मोह में उनसे लगी रहती थी, पता नहीं। वह खूब अच्छी अच्छी कहानियां सुनाया करती थीं। आज उनमें से एक भी कहानी मुझे याद नहीं है। इतना याद है कि उनसे कहानी सुनना मुझे अच्छा लगता था। एक बार उन्होंने मुझे बडे भय्या का कमरा दिखाया था। उसमें इतनी सारी किताबें रखी थीं कि मैं देख कर दंग रह गई। सोनूताई ने बताया कि उनमें से कहानियों की, उपन्यासों की, नाटक आदि की सभी किताबें उन्होंने पढ़ डाली हैं। उन्हीं में से अलग अलग कहानियां वह मुझे सुनाया करती थी
एक दिन मैं स्कूल से लौटी तो टेढी गली में खूब हलचल थी। पता चला कि कोई लड़केवाले सोनूताई को देखने आनेवाले हैं। सभी बड़े लोग खुश थे। मैं सोनूताई से मिलने गई। पहले तो मुझे वहां से भगाने की कोशिश की गई। सोनूताई का घर उस दिन मुझे एकदम अपरिचित सा लगा। लेकिन बड़े भय्या ने मां से कहा, रहने दे उसे, वह सोनू की खास दोस्त है।
फिर लड़केवाले आए। पांच-छह अधेड उम्र के आदमी, पांच-छह औरतें और तीन-चार बच्चे थे। सोनूताई के घर में इतने सारे लोगों के आराम से बैठने का इंतज़ाम पहले से किया हुआ था। बड़ी आवभगत हुई उनकी। पानी-शर्बत-चाय-नाश्ता। फिर पुकार हुई लड़की को बुलाइए। मैं सभी लोगों के साथ बाहर ही बैठी हुई थी। अंदर के दरवाजे से दो औरतें जिसे पकड़ कर ले आईं वह सोनूताई है यह मानने में मुझे थोड़ी दिक्कत हुई। सोनूताई ने घुंघट काढा हुआ था जिसमें उसका पूरा चेहरा ढ़ंका था। कमरे के बीचों बीच एक पाटा रखा था। सोनूताई को उस पर बिठाया गया। सोनूताई उकडूं बैठी फिर सोनूताई से सभी लड़केवालों ने कोई--कोई सवाल पूछा। सोनूताई ने बड़े अदब के साथ सब सवालों के जवाब दिए। गाने के लिए कहा गया तो सोनूताई गाई भी। मैंने खुद सोनूताई को उस दिन पहली बार गाते हुए सुना था।
उसके बाद जो हुआ उससे मुझे धक्का लगा। लड़की देखने आए थे उनके बारे में मन में हिकारत पैदा हुई। उनमें से एक बुजुर्ग औरत ने सोनूताई से पहले खड़े रहने के लिए कहा और फिर चल कर दिखाने के लिए कहा। इससे मन नहीं भरा तो आकर उन्होंने सोनूताई की साड़ी घुटनों तक उठा कर उसके पैर जांचे। बैठक में पुरुष भी बैठे हैं इसका उन्हें भान तक नहीं था। फिर उन्होंने सोनूताई को मुंह खोल कर दांत दिखाने के लिए कहा। मुझे याद आया कुछ समय पहले हमारे दूधवाले भय्या के घरवालों भैंस खरीदते समय इसी तरह उसके दांत जांचे थे। सोनूताई की परीक्षा अभी जारी थी। उनसे सुई की नोक में धागा पिरोने, स्लेट पर अपना नाम लिखने के लिए कहा गया।  चावल में उरद की दाल मिला कर अलग करवाया। आखिर सोनूताई के बड़े भय्या बोले, हमारी बहन सोना है। जिस घर जाएगी भाग जगाएगी। जाओ सोनू, अंदर जाओ। और इस प्रकार सोनूताई को छुटकरा मिला।
आगे लेन-देन की बातें भी होती रही कुल मिला कर वे लोग मुझे पसंद नहीं आए। लगा, सोनूताई इनके घर में खुश नहीं रह सकती। लगा कि सोनूताई का उन्होंने अपमान किया है।
पता चला कि लड़का पहले से शादीशुदा था दो बच्चों का बाप था उसकी बीबी किसी असाध्य रोग से पीडित थी इसलिए वह दूसरी शादी करना चाहता था।
मुहल्लेवाले खुश थे कि उन्होंने सोनूताई को पसंद किया। सोनूताई की मां को उस दिन मैंने तुलसी वृंदावन के चौथरे पर बैठ कर अंधेरे को घूरते देखा था। लगा था कि यह रिशता उन्हें भी मंजूर नहीं है।
बड़े भय्या ने सोनूताई से उसकी मर्जी पूछी तो उसने शादी के लिए हामी भर दी। बड़े भय्या ने कहा, एक बार और सोच। कल-परसों बता देना।' लेकिन सोनूताई ने कहा- तब भी मेरा जवाब हां ही होगा, भय्या। उन्हें बता दो।'
लड़की दिखाने के कार्यक्रम के बाद एक-दो बार मेरी सोनूताई से मुलाकात हुई थी लेकिन अब वह बिल्कुल बदली हुई सी लग रही थी एक बार मैंने उनसे कहा, 'बड़ा मोटा आदमी है वह...'
'हं...,' वह बोलीं। 
'खूब खाता होगा। और, उनके घर में कितने लोग हैं। तुम्हें कितना खाना बनान पड़ेगा!'
'ओरतों को घर के काम करने ही पड़ते हैं,' सोनूताई ने कहा।
थोड़ा हिचकिचाते हुए मैंने कहा, 'उनके दो बच्चे भी हैं।'
सोनूताई ने कहा,'हां...'
मैंने कहा, 'उनकी बीमार बीबी भी है। और मैंने सुना है, उनकी सेवा करवाने के लिए ही वह तुम्हें ब्याह कर ले जा रहे हैं।'
अचानक मुस्कुराकर सोनूताई ने कहा था,'तुम चिंता ना करो। मैं तुमसे बस इतना कहूंगी कि मैं बुरी सौतेली मां नहीं बनूंगी। और सोचो, उस पराए घर में उनकी बीबी के रूप में मुझ एक सहेली भी मिल जाएगी। वह खुद भी तो वहां पराई ही होगी ना? तभी खुली आंखों अपनी सौत आती देखना पड़ रहा है उन्हें। मैं उनकी सेवा करूंगी। तुम चिंता मत करना।'
मैंने अपनी असली चिंता व्यक्त करते हुए कहा, 'हां.., लेकिन हमारी मुलाकातें तो खत्म ही हो जाएंगी ना!'
वह बोलीं, 'हां, ऐसा तो होगा ही। वैसे तुम्हारी तो बहुत सारी सहेलियां हैं... 'और वह मुझे अपनी सहेलियों के नाम ले ले कर उनकी याद दिलाने लगी थी 
सोनूताई की शादी उस आदमी के साथ हो गई। सभी शादियों में जो थोड़े-बहुत फर्क से बातें होती हैं वे हुईं। हंसना-हंसाना, गाने बजाना, गाना, नाराजी, मनौवल, झगडे आदि आदि। मैंने उनकी शादी में खूब ठूंस कर आईस्क्रीम खाई।
सोनूताई विदा हुई 
मोहल्ला खुश था। बड़े और छोटे भय्या थकान का बहाना कर अपने कमरों में बंद हो गए थे।
एक दिन सोनूताई की अम्मा ने मुझे रोका। बोलीं
'तुम्हें लड़का कैसे लगा?' 
मैं असमंजस में चुप रही। वह आगे बोलीं, 'जो सच है वही बताना।
'अच्छा नहीं लगा,' मैंने बताया। 
झट मेरे हाथ अपनी हथेली में लेकर उन्होंने पूछा,'तो तुमने यह बात सोनी को बताई क्यों नहीं?' 
मैंने कहा, 'बताया तो था। वह नहीं मानी।
पहली बार सोनुताई की मां के हाथों का स्पर्श मुझे पता चला। उनकी हथेलियां बेहद खुरदरी और मजबूत थीं। 
उन्होंने एक लंबी उसांस छोड़ी। कहा,'उनका मांगा दान-दहेज भी सब हमने दिया है। हो सकता है हमारी बच्ची को वह खुश रखें।' अपनी बात का पोलापन शायद खुद उनके दिल में बजा था। इसीलिए आगे उन्होंने कहा, 'अपना अपना नसीब!
दो-चार मिनट चुप्पी में गुजरे। बाद में वह बोलीं, 'मैंने भी उसे मना किया था। लेकिन गली के लोगों ने, रिश्तेदारों ने उसका जीना मुश्किल कर दिया था। उनके तानों से वह परेशान थी। मेरी बच्ची। कूद पड़ी शादी की खाई में... हं.. भगवान उसे सुखी रखे।
भगवान का सहारा बड़ा होता है। वह सब कुछ कर सकता है यह विशवास तब मुझमें भी था। मैंने कहा, 'हां, हमारी सोनूताई खुश रहेंगी। आप चिंता ना करिए। उन्हें खुश रहना आता है।'
उन्होंने खींच कर मुझे गोद में बिठाया था और एक बार फिर वह अंधेरे में ताकने लगी थीं। 
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शादी के बाद मैं जब जब सोनूताई से मिली तो वह चुप ही थीं। गूंगी हो गई हो जैसे। उनकी बड़ी सौतेली बेटी मेरी उम्र की थी। 
सोनूताई के बदन पर लकदक साडियां और खूब सारे गहने ज़रूर हुआ करते थे लेकिन जितनी बार मैं उनसे मिली उनके मुरझाए चेहरे पर कभी पहले जैसी लुनाई नहीं देखी। 

मुझे हमेशा लगता रहा, सोनूताई की चुप्पी ने सौभाग्यालंकार पहने हैं।